माँ काली कवच इन हिन्दि



श्री काली कबच


केलाससिखरासीनं सङ्करं वरदं शिवम।


देबी प्रपच्छ सर्वग्यं देबदेबम महेश्वरम॥


॥ देब्युबाच ॥


भगबन देबदेबेश देबानां मोक्षदो प्रभो।


प्रबुहि मे महाभाग गोप्यां यग्यापि च प्रभो॥


शात्रुनां येन नाशः स्यादात्मनो रक्षनम भवेत।


परमेश्वर्य्यमतुलम लभेद येन हितम बद॥


॥ महादेव उबाच ॥


वक्षामि ते महादेवि सर्वधर्म्म हिताय च।


अदभुतम कबचं देब्याससर्बरक्षाकरं नृनाम॥


सर्वारिष्ट प्रशमनं सर्वोप्रदवनाशनम।


सुखदम भोगदम चेब वशयाकर्षनमदभूतम॥


शात्रुनां संश्ययकरं सर्वव्याधि निबारनम।


दुखीनो ज्बरिनशचेब स्वाभीष्ठप्रहतास्तथा॥


भोगमोक्षप्रदम चेव कालिका कवचं पठेत।


॥ बिनियोग ॥


ॐ अस्य श्री कालिकबचस्य श्री भेरब ऋषि गायत्री च्छन्द श्री कालीका देबता ममभीष्टसिद्धय पाठ विनियोग॥


॥ ध्यानाम ॥


ध्यायेत काली महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिनी।


चतुर्भुजां ललाज्जिह्वाम पूर्नचन्द्रनिभाननाम्॥


नीलेत्पल दलश्यामां शात्रुसंघाविदारिनी।


नरमुन्डं तथा खडगम च बरम तथा॥


निभायम रक्तबदनाम दंष्ट्राली घोररूपिनीम्।


साटटहासनां देबी सर्बदा च दिग्बरीम॥


शाबसनस्थितां काली मुन्डमालाबिभुषितां।


इति ध्यात्बा महाकाली ततस्तु कवचं पठेत॥


॥ मूल कबच पाठ ॥


ॐ कालिका घोररूपाया सर्वकामय्रदा शुभा।


सर्वदेव स्तुताम देबी शत्रुनाशं करेतु मे॥


हीं हीं स्वरूपिनी चेब हीं हीं हुं रूपिनी तथा।


हीं हीं श्रं श्रं स्बरूपा सा सदा शत्रुन्विदारयेत॥


श्रीं हीं एं रूपिनी देबी भववन्धबिमोचिनी।


हसकल हीं हीं रिपुन सा हरतु देबी सर्वदा॥


यथा शुम्भो हतो देत्यो निशुम्भशच महासुर।


बेरिनाशय बन्दे तां कालिकां शाङ्करधियाम॥


व्राह्मी शेबी बेष्नवी च बराही नारसिंहिका।


कोमायन्द्री च चामुन्डा खादयन्तु मम द्विष॥


सुरेश्वरि घोररूपा चन्ड मुन्ड बिनाशिनी।


मुन्डमालाबृतांगी च सर्वतु पातु माम् सदा॥


हीं हीं कालीके घोरंद्रष्ठ रुधिरप्रिय रुधिरपूर्न वत्र रूधिरवृत्तस्तनि मम शात्रुन खादय खादय हिंसय हिंसय मारय मारय मिन्दि मिन्दि छिन्दि छिन्दि उच्चटय उच्चटय द्राबय द्राबय शोषय शोषय स्बाहा।


हीं हीं कालिकाये मदीय शात्रुन समर्पयामि स्बाहा॥


ॐ जय जय किरि किरि किटि किटि कुट कुट कटट कटट मर्दय मर्दय मोहय मोहय हर हर मम रिपुन ध्बंसय ध्यंसय भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुध्वानि चामुन्डे सर्वजनान राग्यो राजपुरूषान योषा रिपुन मम वशयान कुरु कुरु तनु तनु धान्यम धनमश्वान गजान रत्नानि दिब्यकामिनी पुत्र पोत्रम राजश्रियं देहि देहि भक्ष भक्ष श्रां श्रीं श्र्रुं श्रो श्रं स्बाहा।


इत्येत कबचं दिब्यं कथितं शाम्भुना पुरा।


ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नशयान्ति शत्रब॥


प्रलय सर्ब ब्याधीनां भवतीह न संशय।


धनहीना पुत्रहीना शात्रबस्तस्य सर्वदा॥


सहस्त्र पाठानसिद्धि कबचास्य भवेत्तथा।


तत कार्यानि सिदध्यन्ति यथा शङ्करभाषितम॥


शमशानाङ्गारमादय चुनोकृत्य प्रयत्नतः।


पादोदकेन स्पृष्टां बा च लिखेल्लोह शलाकया॥


भूमो शात्रुन हीनरूपान ओत्तराशिरसस्तथि।


हस्तं दत्बा तदहृदयो कबचं तु स्वयम पठत॥


शत्रो प्रानप्रतिष्ठान्तु कुर्यान्यन्त्रेन मन्त्रबिद।


हन्यादस्त्र प्रहारेन शात्रुगच्छेद यमलायम॥


ज्वलदंगार तापेन भवान्ति ज्वरिनोतरय।


प्रोक्षनोर्बामपादेन दरिद्रो भवाति ध्रुवम॥


बेरिनाशकरं प्रोक्तं कवचं वशयकारनम।


परमेश्वर्यदं चेव पुत्रपोत्रादिवृद्धिदम॥


प्रभातसमये चेब पुजाकाले प्रयत्नत।


सायंकाले तथा पठत सर्बसिद्धिभवेद ध्रुबम॥


शात्रुरूच्चाटानं यति देशाच्च बिच्चुतो भवेत।


पशचात्किंकरमाप्नोति सत्यं सत्यं न संशय॥


शात्रुनाशकरम देबी सर्व संपत्प्रदे शुभे।


सर्बदेबस्तुतो देबी कालीके त्बां नमम्याहम॥


॥ इति श्री रूद्रायमलतन्त्रोक्तं कालिकबचम् सम्पूर्नम ॥



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